9+Gopal Das Neeraj Poems | गोपालदास “नीरज” कविताएं

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गोपालदास नीरज कविताएं Gopal Das Neeraj Poems

Last Updated on August 8, 2023

अगर आप भी गोपालदास “नीरज” जी के कविताये पढ़ना चाहते है तो हमने यहाँ Gopal Das Neeraj Poems संग्रह किया है

गोपालदास “नीरज” के हिन्दी साहित्यकार,फ़िल्मों के गीत लेखक थे।इनकी कई गाने फिल्मो में उपयोग है | इनकी रचनाये बहुत ही सुप्रसिद्ध है और आज भी लोग गोपालदास “नीरज” जी का कवितीये पढ़ने का पसंद करते है इसलिए हम आज गोपालदास “नीरज” कविताये का संग्रह किया है |

गोपालदास “नीरज” जी को भारत सर्कार ने पहले पद्म श्री से, उसके बाद पद्म भूषण से सम्मानित किया है और इनके ए भाई! ज़रा देख के चलो (फ़िल्म: मेरा नाम जोकर) का गीत के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार मिल चूका है

Gopal Das Neeraj Poems in Hindi | गोपालदास “नीरज” कविताएं

Here we have the top 9 Gopal Das Neeraj Poems in Hindi.

  1. स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से कविता | गोपालदास “नीरज”
  2. जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना कविता | गोपालदास “नीरज”
  3. लिखे जो खत तुझे कविता | गोपालदास “नीरज”
  4. शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब कविता | गोपालदास “नीरज”
  5. ऐ भाई! जरा देख के चलो कविता | गोपालदास “नीरज” | Gopal Das Neeraj ki Rachna
  6. चलते-चलते थक गए पैर कविता |कारवां गुजर गया| गोपालदास “नीरज” Gopal Das Neeraj Karvan Guzar Gaya
  7. हम बच्चे हैं तो क्या? कविता | गोपालदास “नीरज”
  8. कुछ मुक्तक कविता |गोपालदास “नीरज” | Gopal Das Neeraj ki Kavita in Hindi
  9. मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं कविता | गोपालदास “नीरज”

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से कविता | गोपालदास “नीरज”

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई

गीत अश्क बन गए छंद हो दफन गए
साथ के सभी दिऐ धुआँ पहन पहन गए
और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या जमाल था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ़ जमीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा

एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ

हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

माँग भर चली कि एक जब नई-नई किरन
ढोलकें धुमुक उठीं ठुमक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन-नयन

पर तभी ज़हर भरी गाज़ एक वह गिरी
पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से दूर के मकान से
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना कविता | गोपालदास “नीरज”

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग,
उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए।

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए।

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेगे तभी यह अँधेरे घिरे अब
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

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लिखे जो खत तुझे कविता | गोपालदास “नीरज”

लिखे जो ख़त तुझे वो तेरी याद में
हज़ारों रंग के नज़ारे बन गए

सवेरा जब हुआ तो फूल बन गए
जो रात आई तो सितारे बन गए

कोई नगमा कहीं गूँजा, कहा दिल ने के तू आई
कहीं चटकी कली कोई, मैं ये समझा तू शरमाई
कोई ख़ुशबू कहीं बिख़री, लगा ये ज़ुल्फ़ लहराई

फ़िज़ा रंगीं अदा रंगीं, ये इठलाना ये शरमाना
ये अंगड़ाई ये तनहाई, ये तरसा कर चले जाना
बना दे ना कहीं मुझको, जवां जादू ये दीवाना

जहाँ तू है वहाँ मैं हूँ, मेरे दिल की तू धड़कन है
मुसाफ़िर मैं तू मंज़िल है, मैं प्यासा हूँ तू सावन है
मेरी दुनिया ये नज़रें हैं, मेरी जन्नत ये दामन है

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शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब कविता | गोपालदास “नीरज”

शोखियों में घोला जाये, फूलों का शबाब
उसमें फिर मिलायी जाये, थोड़ी सी शराब
होगा यूँ नशा जो तैयार
हाँ…
होगा यूँ नशा जो तैयार, वो प्यार है

शोखियों में घोला जाये, फूलों का शबाब
उसमें फिर मिलायी जाये, थोड़ी सी शराब,
होगा यूँ नशा जो तैयार, वो प्यार है
शोखियों में घोला जाये, फूलों का शबाब

हँसता हुआ बचपन वो, बहका हुआ मौसम है
छेड़ो तो इक शोला है, छूलो तो बस शबनम है
हँसता हुआ बचपन वो, बहका हुआ मौसम है
छेड़ो तो इक शोला है, छूलो तो बस शबनम है
गाओं में, मेले में, राह में, अकेले में
आता जो याद बार बार वो, प्यार है
शोखियों में घोला जाये, फूलों का शबाब
उसमें फिर मिलायी जाये, थोड़ी सी शराब
अरे, होगा यूँ नशा जो तैयार, वो प्यार है
शोखियों में घोला जाये, फूलों का शबाब


रंग में पिघले सोना, अंग से यूँ रस झलके
जैसे बजे धुन कोई, रात में हलके हलके
रंग में पिघले सोना, अंग से यूँ रस झलके
जैसे बजे धुन कोई, रात में हल्के हल्के
धूप में, छाओं में, झूमती हवाओं में
हर दम करे जो इन्तज़ार वो, प्यार है
शोखियों में घोला जाये, फूलों का शबाब
उसमें फिर मिलायी जाये, थोड़ी सी शराब
ओ… होगा यूँ नशा जो तैयार
वो प्यार है

याद अगर वो आये
याद अगर वो आये, कैसे कटे तनहाई
सूने शहर में जैसे, बजने लगे शहनाई
याद अगर वो आये, कैसे कटे तनहाई
सूने शहर में जैसे, बजने लगे शहनाई
आना हो, जाना हो, कैसा भी ज़माना हो
उतरे कभी ना जो खुमार वो, प्यार है

शोखियों में घोला जाये, फूलों का शबाब
उसमें फिर मिलायी जाये, थोड़ी सी शराब
अरे, होगा यूँ नशा जो तैयार
वो प्यार है

ऐ भाई! जरा देख के चलो कविता | गोपालदास “नीरज” Gopal Das Neeraj ki Rachna

ऐ भाई! जरा देख के चलो, आगे ही नहीं पीछे भी
 दायें ही नहीं बायें भी, ऊपर ही नहीं नीचे भी
ऐ भाई!

तू जहाँ आया है वो तेरा- घर नहीं, गाँव नहीं
गली नहीं, कूचा नहीं, रस्ता नहीं, बस्ती नहीं

दुनिया है, और प्यारे, दुनिया यह एक सरकस है
और इस सरकस में- बड़े को भी, चोटे को भी
खरे को भी, खोटे को भी, मोटे को भी, पतले को भी
नीचे से ऊपर को, ऊपर से नीचे को
बराबर आना-जाना पड़ता है

और रिंग मास्टर के कोड़े पर- कोड़ा जो भूख है
 कोड़ा जो पैसा है, कोड़ा जो क़िस्मत है
 तरह-तरह नाच कर दिखाना यहाँ पड़ता है
 बार-बार रोना और गाना यहाँ पड़ता है
 हीरो से जोकर बन जाना पड़ता है

गिरने से डरता है क्यों, मरने से डरता है क्यों
ठोकर तू जब न खाएगा, पास किसी ग़म को न जब तक बुलाएगा
ज़िंदगी है चीज़ क्या नहीं जान पायेगा
रोता हुआ आया है चला जाएगा
कैसा है करिश्मा, कैसा खिलवाड़ है
जानवर आदमी से ज़्यादा वफ़ादार है
खाता है कोड़ा भी रहता है भूखा भी
फिर भी वो मालिक पर करता नहीं वार है

और इन्साण यह- माल जिस का खाता है
प्यार जिस से पाता है, गीत जिस के गाता है
उसी के ही सीने में भोकता कटार है

हाँ बाबू, यह सरकस है शो तीन घंटे का
पहला घंटा बचपन है, दूसरा जवानी है
तीसरा बुढ़ापा है

और उसके बाद- माँ नहीं, बाप नहीं
बेटा नहीं, बेटी नहीं, तू नहीं,
मैं नहीं, कुछ भी नहीं रहता है
रहता है जो कुछ वो- ख़ाली-ख़ाली कुर्सियाँ हैं
ख़ाली-ख़ाली ताम्बू है, ख़ाली-ख़ाली घेरा है
बिना चिड़िया का बसेरा है, न तेरा है, न मेरा है

चलते-चलते थक गए पैर कविता |कारवां गुजर गया| गोपालदास “नीरज” Gopal Das Neeraj Karvan Guzar Gaya

चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ!
पीते-पीते मुँद गए नयन फिर भी पीता जाता हूँ!
झुलसाया जग ने यह जीवन इतना कि राख भी जलती है,
रह गई साँस है एक सिर्फ वह भी तो आज मचलती है,
क्या ऐसा भी जलना देखा-

जलना न चाहता हूँ लेकिन फिर भी जलता जाता हूँ!
चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ!
बसने से पहले लुटता है दीवानों का संसार सुघर,
खुद की समाधि पर दीपक बन जलता प्राणों का प्यार मधुर,
कैसे संसार बसे मेरा-

हूँ कर से बना रहा लेकिन पग से ढाता जात हूँ!
चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ!
मानव का गायन वही अमर नभ से जाकर टकाराए जो,
मानव का स्वर है वही आह में भी तूफ़ान उठाए जो,
पर मेरा स्वर, गायन भी क्या-

जल रहा हृदय, रो रहे प्राण फिर भी गाता जाता हूँ!
चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ!
हम जीवन में परवश कितने अपनी कितनी लाचारी है,
हम जीत जिसे सब कहते हैं वह जीत हार की बारी है,
मेरी भी हार ज़रा देखो-
आँखों में आँसू भरे किन्तु अधरों में मुसकाता हूँ!
चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ!

हम बच्चे हैं तो क्या? कविता | गोपालदास “नीरज”

हम बच्चे हैं तो क्या?
हम हिंदोस्तान बदलकर छोड़ेंगे!
इंसान है क्या, हम
दुनिया का भगवान बदलकर छोड़ेंगे!

मुश्किलें हमारी दासी हैं,
आँधी-तूफान खिलौने हैं,
भूचाल हमारे बिगुल,
बर्फ से ढके पहाड़ बिछौने हैं!
हम नई क्रांति के दूत,
पुराने गान बदलकर छोड़ेंगे!

हम देख रहे हैं भूख
उग रही है गलियों-बाजारों में,
है कैद आदमी की किस्मत
चाँदी की कुछ दीवारों में!
खुद मिट जाएँगे,
या यह सब सामान बदलकर छोड़ेंगे!

हम उन्हें चाँद देंगे
जिनके घर नहीं सितारे जाते हैं,
हम उन्हें हँसी देंगे
जिनके घर फूल नहीं हँस पाते हैं!
गर यह न हुआ तो
सचमुच तीर-कमान बदलकर छोड़ेंगे!

हम बच्चे हैं तो क्या_ कविता_ Gopal Das Neeraj  Poems _गोपालदास _नीरज कविताएं

कुछ मुक्तक कविता | गोपालदास “नीरज” Gopal Das Neeraj ki Kavita in Hindi

१.
अब न वो दर्द, न वो दिल, न वो दीवाने हैं
अब न वो साज, न वो सोज, न वो गाने हैं
साकी! अब भी यहां तू किसके लिए बैठा है
अब न वो जाम, न वो मय, न वो पैमाने हैं

२.
इतने बदनाम हुए हम तो इस जमाने में
तुमको लग जाएंगी सदियां इसे भुलाने में
न तो पीने का सलीका, न पिलाने का शऊर
अब तो ऐसे लोग चले आते हैं मैखाने में

३.
काँपती लौ, ये स्याही, ये धुआँ, ये काजल
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी गीत थी पर जिल्द बंधाने में कटी

४.
अब के सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई
आप मत पूछिए क्या हम पे सफ़र में गुज़री
था लुटेरों का जहाँ गाँव, वहीं रात हुई

५.
हर सुबह शाम की शरारत है
हर ख़ुशी अश्क़ की तिज़ारत है
मुझसे न पूछो अर्थ तुम यूँ जीवन का
ज़िन्दग़ी मौत की इबारत है

६.
है प्यार से उसकी कोई पहचान नहीं
जाना है किधर उसका कोई ज्ञान नहीं
तुम ढूंढ रहे हो किसे इस बस्ती में
इस दौर का इन्सान है इन्सान नहीं

७.
हंसी जिस ने खोजी वो धन ले के लौटा
ख़ुशी जिस ने खोजी चमन ले के लौटा
मगर प्यार को खोजने जो गया वो
न तन ले के लौटा न मन ले के लौटा

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं कविता | गोपालदास “नीरज”

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

हैं फ़ूल रोकते, काटें मुझे चलाते..
मरुस्थल, पहाड चलने की चाह बढाते..
सच कहता हूं जब मुश्किलें ना होती हैं..
मेरे पग तब चलने मे भी शर्माते..
मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे..
तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूं..
मैं मर्घट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूं..
हूं आंख-मिचौनी खेल चला किस्मत से..
सौ बार म्रत्यु के गले चूम आया हूं..
है नहीं स्वीकार दया अपनी भी..
तुम मत मुझपर कोई एह्सान करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

शर्म के जल से राह सदा सिंचती है..
गती की मशाल आंधी मैं ही हंसती है..
शोलो से ही श्रिंगार पथिक का होता है..
मंजिल की मांग लहू से ही सजती है..
पग में गती आती है, छाले छिलने से..
तुम पग-पग पर जलती चट्टान धरो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

फूलों से जग आसान नहीं होता है..
रुकने से पग गतीवान नहीं होता है..
अवरोध नहीं तो संभव नहीं प्रगती भी..
है नाश जहां निर्मम वहीं होता है..
मैं बसा सुकून नव-स्वर्ग “धरा” पर जिससे..
तुम मेरी हर बस्ती वीरान करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

मैं पन्थी तूफ़ानों मे राह बनाता..
मेरा दुनिया से केवल इतना नाता..
वेह मुझे रोकती है अवरोध बिछाकर..
मैं ठोकर उसे लगाकर बढ्ता जाता..
मैं ठुकरा सकूं तुम्हें भी हंसकर जिससे..
तुम मेरा मन-मानस पाशाण करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

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