Top 15+ Hindi Poems on Moon | चांद पर हिन्दी कविताएँ

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Poems on Moon in Hindi

Last Updated on August 8, 2023

Finding the best Hindi Poems on Moon? then here we have the great collection of Poems on Moon in Hindi | चांद पर हिन्दी कविताएँ.

A lot of people think that Moon is the symbol of love that is correct but, do you know that a lot of mothers tell stories about the moon and recite the Hindi Moon Poems. This is the reason why we are introducing today the best Poems on Moon in Hindi चंदा मामा पर कुछ कवितायेँ. And one more thing Small children also call the Moon as चंदा मामा.

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Best Hindi Poems On Moon | चांद पर हिन्दी कविताएँ {चंदा मामा पर कुछ कवितायेँ }

  1. चाँद और कवि | रामधारी सिंह “दिनकर”
  2. चाँदनी | सुमित्रानंदन पंत | Love Poem on Moon in Hindi
  3. बूढा चांद | सुमित्रानंदन पंत | Romantic Poem on Moon in Hindi
  4. फीका चाँद | जावेद अख़्तर
  5. यह चाँद नया है नाव नई आशा की | हरिवंशराय बच्चन
  6. चांद से थोड़ी-सी गप्पें | शमशेर बहादुर सिंह
  7. चांद धरती पे उतरता कब है | कविता किरण
  8. चांद एक दिन | रामधारी सिंह “दिनकर”
  9. चाँदनी में साथ छाया | हरिवंशराय बच्चन
  10. चाँदनी पूरनमासी की | कात्यायनी
  11. चाँद-सितारों मिलकर गाओ | हरिवंशराय बच्चन
  12. चाँद ने मार रजत का तीर | सुमित्रानंदन पंत
  13. ओ चांद | महेन्द्र भटनागर
  14. अंधेरे पाख का चांद | केदारनाथ सिंह
  15. इकला चांद | केदारनाथ अग्रवाल

1.चाँद और कवि | रामधारी सिंह “दिनकर”

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
“रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।”

2.चाँदनी | सुमित्रानंदन पंत | Love Poem on Moon in Hindi

नीले नभ के शतदल पर
वह बैठी शारद-हासिनि,
मृदु-करतल पर शशि-मुख धर,
नीरव, अनिमिष, एकाकिनि!
वह स्वप्न-जड़ित नत-चितवन
छू लेती अग-जग का मन,
श्यामल, कोमल, चल-चितवन
जो लहराती जग-जीवन!
वह फूली बेला की बन
जिसमें न नाल, दल, कुड्मल,
केवल विकास चिर-निर्मल
जिसमें डूबे दश दिशि-दल।
वह सोई सरित-पुलिन पर
साँसों में स्तब्ध समीरण,
केवल लघु-लघु लहरों पर
मिलता मृदु-मृदु उर-स्पन्दन।
अपनी छाया में छिपकर
वह खड़ी शिखर पर सुन्दर,
है नाच रहीं शत-शत छवि
सागर की लहर-लहर पर।
दिन की आभा दुलहिन बन
आई निशि-निभृत शयन पर,
वह छवि की छुईमुई-सी
मृदु मधुर-लाज से मर-मर।
जग के अस्फुट स्वप्नों का
वह हार गूँथती प्रतिपल,
चिर सजल-सजल, करुणा से
उसके ओसों का अंचल।
वह मृदु मुकुलों के मुख में
भरती मोती के चुम्बन,
लहरों के चल-करतल में
चाँदी के चंचल उडुगण।
वह लघु परिमल के घन-सी
जो लीन अनिल में अविकल,
सुख के उमड़े सागर-सी
जिसमें निमग्न उर-तट-स्थल।
वह स्वप्निल शयन-मुकुल-सी
हैं मुँदे दिवस के द्युति-दल,
उर में सोया जग का अलि,
नीरव जीवन-गुंजन कल!
वह नभ के स्नेह श्रवण में
दिशि का गोपन-सम्भाषण,
नयनों के मौन-मिलन में
प्राणों का मधुर समर्पण!
वह एक बूँद संसृति की
नभ के विशाल करतल पर,
डूबे असीम-सुखमा में
सब ओर-छोर के अन्तर।
झंकार विश्व-जीवन की
हौले हौले होती लय
वह शेष, भले ही अविदित,
वह शब्द-मुक्त शुचि-आशय।
वह एक अनन्त-प्रतीक्षा
नीरव, अनिमेष विलोचन,
अस्पृश्य, अदृश्य विभा वह,
जीवन की साश्रु-नयन क्षण।
वह शशि-किरणों से उतरी
चुपके मेरे आँगन पर,
उर की आभा में खोई,
अपनी ही छवि से सुन्दर।
वह खड़ी दृगों के सम्मुख
सब रूप, रेख रँग ओझल
अनुभूति-मात्र-सी उर में
आभास शान्त, शुचि, उज्जवल!
वह है, वह नहीं, अनिर्वच’,
जग उसमें, वह जग में लय,
साकार-चेतना सी वह,
जिसमें अचेत जीवाशय!

3.बूढा चांद | सुमित्रानंदन पंत | Romantic Poem on Moon in Hindi

बूढा चांद
कला की गोरी बाहों में
क्षण भर सोया है

यह अमृत कला है
शोभा असि,
वह बूढा प्रहरी
प्रेम की ढाल!

हाथी दांत की
स्‍वप्‍नों की मीनार
सुलभ नहीं,-
न सही!
ओ बाहरी
खोखली समते,
नाग दंतों
विष दंतों की खेती
मत उगा!

राख की ढेरी से ढंका
अंगार सा
बूढा चांद
कला के विछोह में
म्‍लान था,
नये अधरों का अमृत पीकर
अमर हो गया!

पतझर की ठूंठी टहनी में
कुहासों के नीड़ में
कला की कृश बांहों में झूलता
पुराना चांद ही
नूतन आशा
समग्र प्रकाश है!

वही कला,
राका शशि,-
वही बूढा चांद,
छाया शशि है!

4.फीका चाँद | जावेद अख़्तर

सुखी टहनी, तन्हा चिड़िया, फीका चाँद
आँखों के सहरा में एक नमी का चाँद

उस माथे को चूमे कितने दिन बीते
जिस माथे की खातिर था एक टिका चाँद

पहले तू लगती थी कितनी बेगाना
कितना मुब्हम होता है पहली का चाँद

कम कैसे हो इन खुशियों से तेरा गम
लहरों में कब बहता है नदी का चाँद


आओ अब हम इसके भी टुकड़े कर ले
ढाका रावलपिंडी और दिल्ली का चाँद

5.यह चाँद नया है नाव नई आशा की | हरिवंशराय बच्चन

यह चाँद नया है नाव नई आशा की।
आज खड़ी हो छत पर तुमने
होगा चाँद निहारा,
फूट पड़ी होगी नयनों से
सहसा जल की धारा,
इसके साथ जुड़ीं जीवन की
कितनी मधुमय घड़ियाँ,
यह चाँद नया है नाव नई आशा की।
सात समुंदर बीच पड़े हैं
हम दो दूर किनारे,
किंतु गगन में चमक रहे हैं
दो तारे अनियारे,
मैं इनके ही संग-सहारे
स्वप्न तरी में बैठा
गाता आ जाऊँगा तुम तक एकाकी।
यह चाँद नया है नाव नई आशा की।

6.चांद से थोड़ी-सी गप्पें | शमशेर बहादुर सिंह

गोल हैं ख़ूब मगर

आप तिरछे नज़र आते हैं ज़रा ।

आप पहने हुए हैं कुल आकाश

तारों-जड़ा;

सिर्फ़ मुंह खोले हुए हैं अपना

गोरा-चिट्टा

गोल-मटोल,

अपनी पोशाक को फैलाए हुए चारों सिम्त ।

आप कुछ तिरछे नज़र आते हैं जाने कैसे

-ख़ूब हैं गोकि!


वाह जी वाह!

हमको बुद्धू ही निरा समझा है!

हम समझते ही नहीं जैसे कि

आपको बीमारी है :

आप घटते हैं तो घटते ही चले जाते हैं,

और बढ़ते हैं तो बस यानी कि

बढ़ते ही चले जाते हैं-

दम नहीं लेते हैं जब तक बि ल कु ल ही

गोल न हो जाएं,

बिलकुल गोल ।

यह मरज आपका अच्छा ही नहीं होने में…

7.चांद धरती पे उतरता कब है | कविता किरण

आईना रोज़ सँवरता कब है
अक्स पानी पे ठहरता कब है?

हमसे कायम ये भरम है वरना
चाँद धरती पे उतरता कब है?

न पड़े इश्क की नज़र जब तक
हुस्न का रंग निखरता कब है?

हो न मर्ज़ी अगर हवाओं की
रेत पर नाम उभरता कब है?

लाख चाहे ऐ ‘किरण’ दिल फ़िर भी
दर्द वादे से मुकरता कब है?

8.चांद एक दिन | रामधारी सिंह “दिनकर”

हठ कर बैठा चान्द एक दिन, माता से यह बोला,
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला ।
सन-सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ ।

आसमान का सफ़र और यह मौसम है जाड़े का,
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का ।
बच्चे की सुन बात, कहा माता ने ‘अरे सलोने`,
कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू टोने ।

जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ ।
कभी एक अँगुल भर चौड़ा, कभी एक फ़ुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा ।

घटता-बढ़ता रोज़, किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है
अब तू ही ये बता, नाप तेरी किस रोज़ लिवाएँ
सी दे एक झिंगोला जो हर रोज़ बदन में आए !

(अब चान्द का जवाब सुनिए।)

हंसकर बोला चान्द, अरे माता, तू इतनी भोली ।
दुनिया वालों के समान क्या तेरी मति भी डोली ?
घटता-बढ़ता कभी नहीं मैं वैसा ही रहता हूँ ।
केवल भ्रमवश दुनिया को घटता-बढ़ता लगता हूंँ ।

आधा हिस्सा सदा उजाला, आधा रहता काला ।
इस रहस्य को समझ न पाता भ्रमवश दुनिया वाला ।
अपना उजला भाग धरा को क्रमशः दिखलाता हूँ ।
एक्कम दूज तीज से बढ़ता पूनम तक जाता हूँ ।

फिर पूनम के बाद प्रकाशित हिस्सा घटता जाता ।
पन्द्रहवाँ दिन आते-आते पूर्ण लुप्त हो जाता ।
दिखलाई मैं भले पड़ूँ ना यात्रा हरदम जारी ।
पूनम हो या रात अमावस चलना ही लाचारी ।

चलता रहता आसमान में नहीं दूसरा घर है ।
फ़िक्र नहीं जादू-टोने की सर्दी का, बस, डर है ।
दे दे पूनम की ही साइज का कुर्ता सिलवा कर ।
आएगा हर रोज़ बदन में इसकी मत चिन्ता कर।

अब तो सर्दी से भी ज़्यादा एक समस्या भारी ।
जिसने मेरी इतने दिन की इज़्ज़त सभी उतारी ।
कभी अपोलो मुझको रौंदा लूना कभी सताता ।
मेरी कँचन-सी काया को मिट्टी का बतलाता ।

मेरी कोमल काया को कहते राकेट वाले
कुछ ऊबड़-खाबड़ ज़मीन है, कुछ पहाड़, कुछ नाले ।
चन्द्रमुखी सुन कौन करेगी गौरव निज सुषमा पर ?
खुश होगी कैसे नारी ऐसी भद्दी उपमा पर ।

कौन पसन्द करेगा ऐसे गड्ढों और नालों को ?
किसकी नज़र लगेगी अब चन्दा से मुख वालों को ?
चन्द्रयान भेजा अमरीका ने भेद और कुछ हरने ।
रही सही जो पोल बची थी उसे उजागर करने ।

एक सुहाना भ्रम दुनिया का क्या अब मिट जाएगा ?
नन्हा-मुन्ना क्या चन्दा की लोरी सुन पाएगा ?
अब तो तू ही बतला दे माँ कैसे लाज बचाऊँ ?
ओढ़ अन्धेरे की चादर क्या सागर में छिप जाऊँ ?

9.चाँदनी में साथ छाया | हरिवंशराय बच्चन

चाँदनी में साथ छाया!

मौन में डूबी निशा है,
मौन-डूबी हर दिशा है,
रात भर में एक ही पत्ता किसी तरु ने गिराया!
चाँदनी में साथ छाया!

एक बार विहंग बोला,
एक बार समीर ड़ोला,
एक बार किसी पखेरू ने परों को फड़फड़ाया!
चाँदनी में साथ छाया!

होठ इसने भी हिलाए,
हाथ इसने भी उठाए,
आज मेरी ही व्यथा के गीत ने सुख संग पाया!
चाँदनी में साथ छाया!

10.चाँदनी पूरनमासी की | कात्यायनी

छैल चिकनिया नाच रही है।
डार कटीली आँखें पापिन
भिगो रही है जीवन-जल से
भेद-भाव से ऊपर उठकर
घूम-घूम कर गाँव-डगर सब
प्यार-पँजीरी बाँट रही है।

11.चाँद-सितारों मिलकर गाओ | हरिवंशराय बच्चन

चाँद-सितारों, मिलकर गाओ!

आज अधर से अधर मिले हैं,
आज बाँह से बाँह मिली,
आज हृदय से हृदय मिले हैं,
मन से मन की चाह मिली;
चाँद-सितारों, मिलकर गाओ!

चाँद-सितारे, मिलकर बोले,
कितनी बार गगन के नीचे
प्रणय-मिलन व्यापार हुआ है,
कितनी बार धरा पर प्रेयसि-
प्रियतम का अभिसार हुआ है!
चाँद-सितारे, मिलकर बोले।

चाँद-सितारों, मिलकर रोओ!
आज अधर से अधर अलग है,
आज बाँह से बाँह अलग
आज हृदय से हृदय अलग है,
मन से मन की चाह अलग;
चाँद-सितारों, मिलकर रोओ!

चाँद-सितारे, मिलकर बोले,
कितनी बार गगन के नीचे
अटल प्रणय का बंधन टूटे,
कितनी बार धरा के ऊपर
प्रेयसि-प्रियतम के प्रण टूटे?
चाँद-सितारे, मिलकर बोले।

12.चाँद ने मार रजत का तीर | सुमित्रानंदन पंत

चाँद ने मार रजत का तीर
निशा का अंचल डाला चीर,
जाग रे, कर मदिराधर पान,
भोर के दुख से हो न अधीर!
इंदु की यह अमंद मुसकान
रहेगी इसी तरह अम्लान,
हमारा हृदय धूलि पर, प्राण,
एक दिन हँस देगी अनजान!

13.ओ चांद | महेन्द्र भटनागर

ओ चांद सलोने ! अम्बर से
क्या कभी न नीचे उतरोगे ?

बंद करो उन्मत्त ! चकोरी
का और चुराना भोला मन,
दूर करो नभ के जादूगर !
मचली लहरों का पागलपन,
शांत करो जिज्ञासा कवि के
उर में बढ़ने वाली प्रतिक्षण,
ओ चांद अनोखे ! जीवन का
चुप-चुप कब भेद बताओगे ?

शायद न मिटेगी युग-युग तक
यह दिन-दिन बढ़ती सुन्दरता,
शायद न मिटेगी युग-युग तक
यह निज चरणों की निर्भरता,
शायद न मिटेगी युग-युग तक
यौवन की अल्हड़ चंचलता,
ओ चांद अकेले ! बाहों में
क्या कभी मुझे भी भर लोगे ?

14.अंधेरे पाख का चांद | केदारनाथ सिंह

जैसे जेल में लालटेन
चाँद उसी तरह
एक पेड़ की नंगी डाल से झूलता हुआ
और हम
यानी पृथ्वी के सारे के सारे क़ैदी खुश
कि चलो कुछ तो है
जिसमें हम देख सकते हैं
एक-दूसरे का चेहरा!

15.इकला चांद | केदारनाथ अग्रवाल

इकला चांद

असंख्य तारे,

नील गगन के

खुले किवाड़े;

कोई हमको

कहीं पुकारे

हम आएंगे

बाँह पसारे !

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