अगर आप Hindi Poems on Nature ढूंढ रहे है तो यहाँ आपको बहुत सारे प्रकृति पर कविताएँ मिल जाएंगे |
प्रकृति के बिना हमारा जीवन अधूरा है | प्रकृति है तो हम है | यहाँ प्रक्रियति की जितना तरफ किया जाए उतना काम लगता है लेकिन एक कवी ही अपने कविता के द्वारा प्रकृति मॉ का सौंदर्य के के बारे में वर्णन कर सकता है |
प्रकृति को बचाये रखना हमारा कर्तव्य है और हम जितना ज्यादा प्रकृति को महत्व दे उतना ज्यादा हमारे लिए अच्छा होगा इसी कारणवश भारत सर्कार ने १-१० तक पड़ने वाले बचो को प्रकृति का महत्व बताने के लिए किताबे में बहुत सारे प्रकृति पर कविताएँ दी गयी है | आज हम देखेनेग कुछ बेहेतरीन कविताएँ प्रकृति पर|
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Best Nature Poems in Hindi
- 1: प्रकृति संदेश / सोहनलाल द्विवेदी
- 2: बसंत मनमाना / माखनलाल चतुर्वेदी
- 3: ये वृक्षों में उगे परिन्दे / माखनलाल चतुर्वेदी | कुदरत पर कविता |
- 4: प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है / श्रीकृष्ण सरल |
- 5: प्रकृति रमणीक है / जगदीश गुप्त |
- 6: प्रकृति और हम / अनातोली परपरा |
- 7: प्रकृति और तुम / नीरजा हेमेन्द्र |
- 8: प्रकृति के दफ़्तर में कविता
- 9: प्रकृति हूँ मैं ही कविता
- 10:प्रकृति-परी कविता /
- 11: प्रकृति कविता / डी. एम. मिश्र | Nature Poem
- 12: प्रकृति है वह कविता अंग्रेजी / एमिली डिकिंसन | English Nature Poems
- 13: प्रकृति माँ कविता / मनोज चौहान | Nature par कविता
- 14: देख प्रकृति की ओर कविता / शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
- 15: प्रकृति बिना मनुष्य कविता / रेखा चमोली
- 16:प्रकृति कविता / निधि सक्सेना | Poem on Beauty of Nature in Hindi
- 17:प्रकृति में तुम कविता / पुष्पिता | Poems on Nature in Hindi
- 18:प्रकृति की ओर कविता / भरत प्रसाद | Hindi Poems On Nature
1: प्रकृति संदेश / सोहनलाल द्विवेदी | प्रकृति का संदेश kavita
- कविता का नाम :प्रकृति संदेश
- कविता के लेखक : सोहनलाल द्विवेदी
पर्वत कहता शीश उठाकर,
तुम भी ऊँचे बन जाओ।
सागर कहता है लहराकर,
मन में गहराई लाओ।समझ रहे हो क्या कहती हैं
उठ उठ गिर गिर तरल तरंग
भर लो भर लो अपने दिल में
मीठी मीठी मृदुल उमंग!पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो
सोहनलाल द्विवेदी
कितना ही हो सिर पर भार,
नभ कहता है फैलो इतना
ढक लो तुम सारा संसार!

2: बसंत मनमाना | माखनलाल चतुर्वेदी | Nature Poem In Hindi
- कविता का नाम :बसंत मनमाना
- कविता के लेखक : माखनलाल चतुर्वेदी
चादर-सी ओढ़ कर ये छायाएँ
तुम कहाँ चले यात्री, पथ तो है बाएँ।धूल पड़ गई है पत्तों पर डालों लटकी किरणें
छोटे-छोटे पौधों को चर रहे बाग में हिरणें,
दोनों हाथ बुढ़ापे के थर-थर काँपे सब ओर
किन्तु आँसुओं का होता है कितना पागल ज़ोर-
बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे
उनसे बातें कर पाता हूँ कि मैं कुछ जैसे-तैसे।
पर्वत की घाटी के पीछे लुका-छिपी का खेल
खेल रही है वायु शीश पर सारी दनिया झेल।छोटे-छोटे खरगोशों से उठा-उठा सिर बादल
माखनलाल चतुर्वेदी
किसको पल-पल झांक रहे हैं आसमान के पागल?
ये कि पवन पर, पवन कि इन पर, फेंक नज़र की डोरी
खींच रहे हैं किसका मन ये दोनों चोरी-चोरी?
फैल गया है पर्वत-शिखरों तक बसन्त मनमाना,
पत्ती, कली, फूल, डालों में दीख रहा मस्ताना।

3: ये वृक्षों में उगे परिन्दे / माखनलाल चतुर्वेदी | कुदरत पर कविता | easy poem on nature in hindi
- कविता का नाम :ये वृक्षों में उगे परिन्दे
- कविता के लेखक : माखनलाल चतुर्वेदी
ये वृक्षों में उगे परिन्दे
पंखुड़ि-पंखुड़ि पंख लिये
अग जग में अपनी सुगन्धित का
दूर-पास विस्तार किये।झाँक रहे हैं नभ में किसको
फिर अनगिनती पाँखों से
जो न झाँक पाया संसृति-पथ
कोटि-कोटि निज आँखों से।श्याम धरा, हरि पीली डाली
हरी मूठ कस डाली
कली-कली बेचैन हो गई
झाँक उठी क्या लाली!आकर्षण को छोड़ उठे ये
नभ के हरे प्रवासी
सूर्य-किरण सहलाने दौड़ी
हवा हो गई दासी।बाँध दिये ये मुकुट कली मिस
कहा-धन्य हो यात्री!
धन्य डाल नत गात्री।
पर होनी सुनती थी चुप-चुप
विधि -विधान का लेखा!
उसका ही था फूल
हरी थी, उसी भूमि की रेखा।धूल-धूल हो गया फूल
गिर गये इरादे भू पर
युद्ध समाप्त, प्रकृति के ये
गिर आये प्यादे भू पर।हो कल्याण गगन पर-
मन पर हो, मधुवाही गन्ध
हरी-हरी ऊँचे उठने की
बढ़ती रहे सुगन्ध!पर ज़मीन पर पैर रहेंगे
माखनलाल चतुर्वेदी
प्राप्ति रहेगी भू पर
ऊपर होगी कीर्ति-कलापिनि
मूर्त्ति रहेगी भू पर।।

4: प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है / श्रीकृष्ण सरल | प्रकृति का संदेश kavita | nature poems in hindi for class 10
- कविता का नाम :प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है
- कविता के लेखक : श्रीकृष्ण सरल

प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है,
मार्ग वह हमें दिखाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।नदी कहती है’ बहो, बहो
जहाँ हो, पड़े न वहाँ रहो।
जहाँ गंतव्य, वहाँ जाओ,
पूर्णता जीवन की पाओ।
विश्व गति ही तो जीवन है,
अगति तो मृत्यु कहाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।शैल कहतें है, शिखर बनो,
उठो ऊँचे, तुम खूब तनो।
ठोस आधार तुम्हारा हो,
विशिष्टिकरण सहारा हो।
रहो तुम सदा उर्ध्वगामी,
उर्ध्वता पूर्ण बनाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।वृक्ष कहते हैं खूब फलो,
दान के पथ पर सदा चलो।
सभी को दो शीतल छाया,
पुण्य है सदा काम आया।
विनय से सिद्धि सुशोभित है,
अकड़ किसकी टिक पाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।यही कहते रवि शशि चमको,
श्रीकृष्ण सरल
प्राप्त कर उज्ज्वलता दमको।
अंधेरे से संग्राम करो,
न खाली बैठो, काम करो।
काम जो अच्छे कर जाते,
याद उनकी रह जाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।
5: प्रकृति रमणीक है / जगदीश गुप्त | प्रकृति के गुणों पर कविता | Hindi Poems on Environment
- कविता का नाम :प्रकृति रमणीक है
- कविता के लेखक : जगदीश गुप्त
प्रकृति रमणीक है।
जगदीश गुप्त
जिसने इतना ही कहा-
उसने संकुल सौंदर्य के घनीभूत भार को
आत्मा के कंधों पर
पूरा नहीं सहा!
भीतर तक
क्षण भर भी छुआ यदि होता-
सौंदर्य की शिखाओं ने,
जल जाता शब्द-शब्द,
रहता बस अर्थकुल मौन शेष।
ऐसा मौन-जिसकी शिराओं में,
सारा आवेग-सिंधु,
पारे-सा-
इधर-उधर फिरता बहा-बहा!
प्रकृति ममतालु है!
दूधभरी वत्सलता से भीगी-
छाया का आँचल पसारती,
-ममता है!
स्निग्ध रश्मि-राखी के बंधन से बांधती,
-निर्मल सहोदरा है!
बाँहों की वल्लरि से तन-तरू को
रोम-रोम कसती-सी!
औरों की आँखों से बचा-बचा-
दे जाती स्पर्शों के अनगूंथे फूलों की पंक्तियाँ-
-प्रकृति प्रणयिनी है!
बूंद-बूंद रिसते इस जीवन को, बांध मृत्यु -अंजलि में
भय के वनांतर में उदासीन-
शांत देव-प्रतिमा है!
मेरे सम्मोहित विमुग्ध जलज-अंतस् पर खिंची हुई
प्रकृति एक विद्युत की लीक है!
ठहरों कुछ, पहले अपने को, उससे सुलझा लूँ
तब कहूँ- प्रकृति रमणीक है…
6: प्रकृति और हम / अनातोली परपरा | प्रकृति पर कविता short | Heart touching Poem on Nature in Hindi
- कविता का नाम :प्रकृति और हम
- कविता के लेखक : अनातोली परपरा
जब भी घायल होता है मन
प्रकृति रखती उस पर मलहम
पर उसे हम भूल जाते हैं
ध्यान कहाँ रख पाते हैंउसकी नदियाँ, उसके सागर
उसके जंगल और पहाड़
सब हितसाधन करते हमारा
पर उसे दें हम उजाड़योजना कभी बनाएँ भयानक
अनातोली परपरा
कभी सोच लें ऐसे काम
नष्ट करें कुदरत की रौनक
हम, जो उसकी ही सन्तान

7: प्रकृति और तुम / नीरजा हेमेन्द्र | कविता | Hindi Poem on Prakriti Nature
- कविता का नाम :प्रकृति और तुम
- कविता के लेखक : नीरजा हेमेन्द्र

अब हो रही हैं /ऋतुएँ परिवर्तित
नीरजा हेमेन्द्र
शनै…शनै…शनै…
परिवर्तन सृष्टि का विधान है
शश्वत् है, अटल है, अभेद्य है
प्रकृति और पुरूष भी आबद्ध हैं
प्रकृति के नियमों से
प्रकृति जो पुरूष की सहचरी है,
सहभागी है, अर्द्ध अस्तित्व है
तब भी करता है वह प्रकृति को
आहत्/मर्माहत्
प्रकृति कभी नही करती उसका प्रतिकार
प्रतिवाद या कि विद्रोह
नदी का रूप धर
वह सागर के सागर के समीप
बहती चली जाती है
नैसर्गिक आकर्षण में आबद्ध
वह अपने हृदय में रखती है
विश्व द्वारा प्रक्षेपित कलुषताएँ
वह छोटी लताओं का रूप धर
वृक्षों के इर्द-गिर्द उग आती है
सहचरी -सी
वह उसकी ओर अग्रसर होती है
वृक्ष अपनी वृहदता पर
करता है मिथ्या अभिमान
वह होता है गर्वित
लताएँ वृक्ष से अपना शाश्वत् मोह
छोड़ नही पातीं
एक दिन वह वृक्ष को ढ़ँक लेती हैं
वृक्ष लताओं के अस्तित्व में
हो जाता है समाहित
वहाँ वृक्ष नही /दृष्टिगोचर होतीं हैं
सिर्फ लताएँ
प्रकृति ने अपने समर्पण से
प्रमाणित किया है कि प्रकृति
पुरूष के मिथ्या अभिमान को
तिरोहित करती थी/ तिरोहित करती है
तिरोहित करती रहेगी।
8: प्रकृति के दफ़्तर में कविता / शरद कोकास | Hindi Nature Poem
- कविता का नाम :प्रकृति के दफ़्तर में
- कविता के लेखक : शरद कोकास
कल शाम गुस्से में लाल था सूरज
प्रकृति के दफ़्तर में हो रहा है कार्य-विभाजन
जायज़ हैं उसके गुस्से के कारण
अब उसे देर तक रुकना जो पड़ेगानहीं टाला जा सकता ऊपर से आया आदेश
काम के घंटों में परिवर्तन ज़रूरी है
यह नई व्यवस्था की माँग है
बरखा, बादल, धूप, ओस, चाँदनी
सब किसी न किसी के अधीनस्थ
बंधी-बंधाई पालियों में
काम करने के आदी
कोई भी अप्रभावित नहीं हैंहवाओं की जेबें गर्म हो चली हैं
धूप का मिज़ाज़ कुछ तेज़
चांदनी कोशिश में है
दिमाग की ठंडक यथावत रखने की
बादल, बारिश, कोहरा छुट्टी पर हैं इन दिनोंइधर शाम देर से आने लगी है ड्यूटी पर
सुबह जल्दी आने की तैयारी में लगी है
दोपहर को नींद आने लगी है दोपहर में
सबके कार्य तय करने वाला मौसम
ख़ुद परेशान है तबादलों के इस मौसम मेंखुश है तो बस रात
अब उसे अकेले नहीं रुकना पड़ेगा
वहशी निगाहों का सामना करते हुए
ओवरटाइम के बहाने देर रात तकभोर, दुपहरी, साँझ, रात
शरद कोकास
सब के सब नये समीकरण की तलाश में
जैसे पुराने साहब की जगह
आ रहा हो कोई नया साहब ।
9: प्रकृति हूँ मैं ही कविता / जया पाठक श्रीनिवासन | Hindi Kavita Nature
- कविता का नाम :प्रकृति हूँ मैं ही
- कविता के लेखक : जया पाठक श्रीनिवासन
तो तुम्हे लगता है-
कि तुम प्रयोजन हो?
जानते हो –
कड़ी दर कड़ी
बढ़ती है
प्रकृति
ओज से भरी
अमृत से लबालब
विकसित फूलों की क्यारी सी
जिसमें
आते हो तुम
भटकते – भ्रमर से
इधर उधर
और बीजते हो
अगली फूलों की जमात
तुम्हारा आना और जाना यह
पल भर का
मेरी अनादी-अनंत की गति में
रह जाता
एक बिंदु मात्र
फिर भी,
तुम्हारी उम्र से नापकर
विधाता से
मांगती हूँ हमेशा
अपने लिए कुछ कम घड़ियाँजाने क्यों
जया पाठक श्रीनिवासन
लगता है मुझे भी
अक्सर
कि, तुम ही प्रयोजन हो !
10:प्रकृति-परी कविता / सुधा गुप्ता | Hindi Poem On Nature
- कविता का नाम :प्रकृति-परी
- कविता के लेखक : सुधा गुप्ता
प्रकृति परी
हाथ लिये घूमती
जादू की छड़ी
मोहक रूप धरे
सब का मन हरेधरा सुन्दरी!
तेरा मोहक रूप
बड़ा निराला
निज धुन मगन
हर कोई मतवालावसन्त आया
बहुत ही बातूनी
हुई हैं मैना
चहकती फिरतीं
अरी, आ, री बहनाआम की डाली
खुशबू बिखेरती
पास बुलाती
‘चिरवौनी’ करती है
पिकी, चोंच मार केचाँदनी स्नात
शरद-पूनो रात
भोर के धोखे
पंछी चहचहाते
जाग पड़ता वनमायके आती
गंध मदमाती-सी
कली बेला की
वर्ष में एक बार
यही रीति-त्योहारशेफाली खिली
वन महक गया
ॠतु ने कहा:
गर्व मत करना
पर्व यह भी गयाकाम न आई
कोहरे की रज़ाई
ठण्डक खाई
छींक-छींक रजनी
आँसू टपका रहीदुग्ध-धवल
चाँदनी में नहाया
शुभ्र, मंगल
आलोक जगमग
हँस रहा जंगलतम घिरा रे
काजल के पर्वत
उड़ते आए
जी भर बरसेंगे
धान-बच्चे हँसेंगेघुमन्तू मेघ
बड़े ही दिलफेंक
शम्पा को देखा
शोख़ी पे मर मिटे
कड़की, डरे, झरेबड़ी सुबह
सूरज मास्टर दा’
किरण-छड़ी
ले, आते-धमकाते
पंछी पाठ सुनातेसलोनी भोर
श्वेत चटाई बिछा
नीले आँगन
फुरसत में बैठी
कविता पढ़ रहीफाल्गुनी रात
बस्तर की किशोरी
सज-धज के
‘घोटुल’ को तैयार
चाँद ढूँढ लिया हैवर्षा की भोर,
मेघों की नौका-दौड़
शुरू हो गई
‘रेफरी’ थी जो हवा,
खेल शामिल हुईवन पथ में
जंगली फूल-गंध
वनैली घास
चीना-जुही लतर
सोई राज कन्या-सीसज के बैठी
आकाश की अटारी
बालिका-बधू
नीला आँचल उठा
झाँके मासूम घटावर्षा से ऊबे
शरदाकाश तले
हरी घास पे
रंग-बिरंगे पंछी
पिकनिक मनातेआज सुबह
आकाश में अटकी
दिखाई पड़ी
फटी कागज़ी चिट्ठी
आह! टूटा चाँद था!!ज्वर से तपे
जंगल के पैताने
आ बैठी धूप
प्यासा बेचैन रोगी
दो बूँद पानी नहींकोयलिया ने
गाए गीत रसीले
कोई न रीझा
धन की अंधी दौड़
कान चुरा ले भागीजी भर जीना
गाना-चहचहाना
पंछी सिखाते:
केवल वर्तमान
कल का नहीं भानपरिन्दे गाते
कृतज्ञता से गीत
प्रभु की प्रति:
उड़ने को पाँखें दीं
और चंचु को दानापौष का सूर्य
सामने नहीं आता
मुँह चुराता
बेवफ़ा नायक-सा
धरती को फुसलाताधरा के जाये
वसन्त आने पर
खिलखिलाए
फूले नहीं समाए
मस्ती में गीत गाएबहुत छोटा
तितली का जीवन
उड़ती रहे
पराग पान करे
कोई कुछ न कहेजंगल गाता
भींगुर लेता तान
झिल्ली झंकारे
टिम-टिम जुगनू
तरफओं के चौबारेअपने भार
झुका है हरसिंगार
फूलों का बोझ
उठाए नहीं बने
खिले इतने घनेसूरज मुखी
सूर्य दिशा में घूमें
पूरे दिवस
प्रमाण करते-से
भक्ति भाव में झूमेंपावस ॠतु:
प्रिया को टेर रहा
हर्षित मोर
पंख पैफला नाचता
प्रेम-कथा बाँचतापेड़ हैरान
पूछें- हे भगवान्!
इंसानी त्मिप्सा
हम क्या करेंगे जी?
कट-कट मरेंगे जी?हुई जो भोर
टुहँक पड़े मोर
देखा नशारा
नीली बन्दनवार
अक्षितिज सजी थीछींेंटे, बौछार
भिगो, खिलखिलाता
शोख़ झरना
स्पफटिक की चादर
किसने जड़े मोती?पाँत में खड़े
गुलमोहर सजे
हरी पोशाक
चोटी में गूँथे पूफल
छात्राएँ चलीं स्कूलठण्डी बयार
सलोनी-सी सुबह
मीठी ख़ुमारी
कोकिल कूक उठी
अजब जादूगरीबढ़ता जाये
ध्रती का बुख़ार
आर न पार
उन्मत्त है मानव
स्वयंघाती दानवदिवा अमल
सरि में हलचल
पाल ध्वल
खुले जो तट बँध्
नौका चली उछलपेंफकता आग
भर-भर के मुट्ठी
धरा झुलसी
दिलजला सूरज
जला के मानेगारात के साथी
सब विदा हो चुके
पैफली उजास
अटका रह गया
पफीके ध्ब्बे-सा चाँदआया आश्विन
मतवाला बनाए
हवा खुनकी
मनचीता पाने को
चाह पिफर ठुनकीसृष्टि सुन्दरी
पिफर पिफर रिझाती
मत्त यौवना
टूट जाता संयम
अनादि पुरूष कामैल, कीचड़
सड़े पत्तों की गंध्
लपेटे तन
बंदर-सी खुजाती
आ खड़ी बरसातसिर पे ताज
पीठ पर है दाग्ा
गीतों की रानी
गाती मीठा तरानाµ
वसन्त! पिफर आनाप्रिय न आए
बैठी दीप जलाए
आकाश तले
आँसू गिराती निशा
न रो, उषा ने कहागुलाबी, नीले
बैंगनी व ध्वल
रंग-निर्झर
सावनी की झाड़ियाँ
हँस रहीं जी भरबुलबुल का
बहार से मिलन
रहा नायाब
गाती रही तराना
खिलते थे गुलाबकिसकी याद
सिर पटकती है
लाचार हवा
खोज-खोज के हारी
नहीं दर्द की दवाआ गया पौष
सुधा गुप्ता
लाया ठण्डी सौगातें
बप़्ार्फीली रातें
पछाड़ खाती हवा
कोई घर न खुला
11: प्रकृति कविता / डी. एम. मिश्र | Nature Poem
- कविता का नाम :प्रकृति
- कविता के लेखक : डी. एम. मिश्र
विधाता रहस्य रचता है
डी. एम. मिश्र
मनुष्य विस्मय में डूब जाता है
फिर जैसी जिसकी आस
वैसी उसकी तलाश
नतीज़े दिखाकर
प्रकृति मुमराह नहीं करती
प्रकृति जानती है
वह बड़ी है
पर, आस्था और
विश्वास पर खड़ी है
जहाँ एक पूजा घर होने से
बहुत कुछ बच जाता है खोने से
अनन्त का आभास
निकट से होता है
एक आइना अपनी धुरी पर
धूमता हुआ
बहुत दूर निकल जाता है
तब क्या-क्या
सामने आता है
जटिलताओं का आभास
फूल-पत्तियों को कम
जड़ों और बारीक तंतुओं को ज्यादा होता है
जहाँ भाषा और जुबान का
कोई काम नहीं होता

12: प्रकृति है वह कविता अंग्रेजी / एमिली डिकिंसन | English Nature Poems
- कविता का नाम :प्रकृति है वह
- कविता के लेखक : एमिली डिकिंसन
प्रकृति है वह जो हम देखते हैं,
एमिली डिकिंसन
ये पहाड़ – वो दोपहर
गिलहरी – ग्रहण – भँवरा,
न, न, प्रकृति है स्वर्ग –
प्रकृति है वह जो हम सुनते हैं,
बोबोलिंक – समन्दर
तूफ़ान – क्रिकेट
न न, प्रकृति है समरसता,
प्रकृति वह है जो हम जानते हैं,
फिर भी वह रह जाती अनबूझी,
सच, उसकी सरलता के आगे,
हमारी विद्वता दिखती कितनी बौनी!
13: प्रकृति माँ कविता / मनोज चौहान | Nature par कविता
- कविता का नाम :प्रकृति माँ
- कविता के लेखक : मनोज चौहान
हे प्रकृति माँ ,
मैं तेरा ही अंश हूं,
लाख चाहकर भी,
इस सच्चाई को ,
झुठला नहीं सकता ।
मैंने लिखी है बेइन्तहा,
दास्तान जुल्मों की,
कभी अपने स्वार्थ के लिए,
काटे हैं जंगल,
तो कभी खेादी है सुंरगें,
तेरा सीना चीरकर ।अपनी तृष्णा की चाह में,
मैंने भेंट चढ़ा दिए हैं,
विशालकाय पहाड.,
ताकि मैं सीमेंट निर्माण कर,
बना संकू एक मजबूत और,
टिकाऊ घर अपने लिए ।अवैध खनन में भी ,
पीछे नहीं रहा हूँ ,
पानी के स्त्रोत,
विलुप्त कर,
मैंने रौंद डाला है,
कृषि भूमि के,
उपजाऊपन को भी lचंचलता से बहते,
नदी,नालों और झरनों को,
रोक लिया है मैंने बांध बनाकर,
ताकि मैं विद्युत उत्पादन कर,
छू संकू विकास के नये आयाम lतुम तो माता हो,
और कभी कुमाता,
नहीं हो सकती,
मगर मैं हर रोज ,
कपूत ही बनता जा रहा हूं।
अपने स्वार्थों के लिए ,
नित कर रहा हूँ ,
जुल्म तुम पर,
फिर भी तुमने कभी ,
ममता की छांव कम न की ।दे रही हो हवा,पानी,धूप,अन्न
मनोज चौहान
आज भी,
और कर रही हो,
मेरा पोषण हर रोज।
14: देख प्रकृति की ओर कविता / शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
- कविता का नाम :देख प्रकृति की ओर
- कविता के लेखक : शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
देख प्रकृति की ओर
मन रे! देख प्रकृति की ओर ।
क्यों दिखती कुम्हलाई संध्या
क्यों उदास है भोर
देख प्रकृति की ओर ।वायु प्रदूषित नभ मंडल
दूषित नदियों का पानी
क्यों विनाश आमंत्रित करता है मानव अभिमानी
अंतरिक्ष व्याकुल-सा दिखता
बढ़ा अनर्गल शोर
देख प्रकृति की ओर ।कहाँ गए आरण्यक लिखने वाले
मुनि संन्यासी
जंगल में मंगल करते
वे वन्यपशु वनवासी
वन्यपशु नगरों में भटके
वन में डाकू चोर
देख प्रकृति की ओर ।निर्मल जल में औद्योगिक मल
बिल्कुल नहीं बहायें
हम सब अपने जन्मदिवस पर
एक-एक पेड़ लगाएँ
पर्यावरण सुरक्षित करने
पालें नियम कठोर
देख प्रकृति की ओर ।जैसे स्वस्थ त्वचा से आवृत
शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
रहे शरीर सुरक्षित
वैसे पर्यावरण सृष्टि में
सब प्राणी संरक्षित
क्षिति जल पावक गगन वायु में
रहे शांति चहुँ ओर
देख प्रकृति की ओर ।
15: प्रकृति बिना मनुष्य कविता / रेखा चमोली
- कविता का नाम :प्रकृति बिना मनुष्य
- कविता के लेखक : रेखा चमोली
नदी तब भी थी
रेखा चमोली
जब कोई उसे नदी कहने वाला न था
पहाड़ तब भी थे
हिमालय भले ही इतना ऊॅचा न रहा हो
ना रहे हों समुद्र में इतने जीव
नदी पहाड हिमालय समुद्र
तब भी रहंेगे
जब नहीं रहेंगे इन्हें पुकारने वाले
इन पर गीत लिखने वाले
इनसे रोटी उगाने वाले
नदी पहाड़ हिमालय समुद्र
मनुष्य के बिना भी
नदी पहाड़ हिमालय समुद्र हैं
इनके बिना मनुष्य, मनुष्य नहीं।
16:प्रकृति कविता / निधि सक्सेना | Poem on Beauty of Nature in Hindi
- कविता का नाम :प्रकृति
- कविता के लेखक : निधि सक्सेना
बरगद का वृक्ष देख कर
याद आते हैं बूढ़े दादा
कई हाथों से खुद को थामे
पुकारते
कि कुछ पल ठहरो
तनिक सुस्ता लो
घनी छाँव है मेरीबाबा जैसा है पीपल
विशाल
अलौकिक
जो पतझड़ में भी
अपने कुछ पत्ते बचा लेता है
अपने बच्चों के लिएकेले का पेड़ देख कर याद आती हैं माँ
दुबली पतली
अपनी सीमित संपदा में भी
खनिजों से भरपूर खाद्य भंडार उत्पन्न कर लेतींअपने बगीचे में लगे नन्हे गुलाब देख
अपने बच्चे याद आते हैं
इन्हीं हाथों लगे
बढ़े
फले फूलेऔर पारिजात जैसे ‘तुम’
हर सांझ प्रेम ओढ़ लेते
पग में असंख्य तारे बिछाते
प्रतीक्षा में पुष्प बिछाते
भावों संग खिलते बुझते
झरते
भोर से पहले बिखर जाते
किसी उदास प्रेमी की तरहसभी रिश्तों को
निधि सक्सेना
प्रकृति ने कैसे
अपनी हथेली में समेटा है.
17:प्रकृति में तुम कविता / पुष्पिता | Poems on Nature in Hindi
- कविता का नाम :प्रकृति में तुम
- कविता के लेखक : पुष्पिता

सूर्य की चमक में
तुम्हारा ताप है
हवाओं में
तुम्हारी साँस है
पाँखुरी की कोमलता में
तुम्हारा स्पर्श
सुगंध में
तुम्हारी पहचान।जब जीना होता है तुम्हें
प्रकृति में खड़ी हो जाती हूँ
और आँखें
महसूस करती हैं
अपने भीतर तुम्हें।मैं अपनी परछाईं में
देखती हूँ तुम्हें
परछाईं के काग़ज़ पर
लिखती हूँ गहरी परछाईं के
प्रणयजीवी शब्द।तुम मेरी आँखों के भीतर
पुष्पिता
जो प्यार की पृथ्वी रचते हो
उसे मैं शब्द की प्रकृति में
घटित करती हूँ।
18:प्रकृति की ओर कविता / भरत प्रसाद | Hindi Poems On Nature
- कविता का नाम :प्रकृति की ओर
- कविता के लेखक : भरत प्रसाद
प्रातः बेला
टटके सूरज को जी भर देखे
कितने दिन बीत गए।
नहीं देख पाया
पेड़ों के पीछे उसे
छिप-छिपकर उगते हुए।
नहीं सुन पाया
भोर आने से पहले
कई चिड़ियों का एक साथ कलरव।
नहीं पी पाया
दुपहरी की बेला
आम के बगीचे में झुर-झुर बहती
शीतल बयार।उजास होते ही
गेहूँ काटने के लिए
किसानों, औरतों, बच्चों और बेटियों का जत्था
मेरे गाँव से होकर
आज भी जाता होगा।
देर रात तक
आज भी
खलिहान में
पकी हुई फ़सलों का बोझ
खनकता होगा।
हमारे सीवान की गोधूलि बेला
घर लौटते हुए
बछड़ों की हर्ष-ध्वनि से
आज भी गूँजती होगी।फिर कब देखूँगा?
गनगनाती दुपहरिया में
सघन पत्तियों के बीच छिपा हुआ
चिड़ियों का जोड़ा।
फिर कब सुनूँगा?
कहीं दूर
किसी किसान के मुँह से
रात के सन्नाटे में छिड़ा हुआ
कबीर का निर्गुन-भजन।
फिर कब छूऊँगा?
अपनी फसलों की जड़ें
उसके तने, हरी-हरी पत्तियाँ
उसकी झुकी हुई बालियाँ।अपने घर के पिछवाड़े
भरत प्रसाद
डूबते समय
डालियों, पत्तियों में झिलमिलाता हुआ सूरज
बहुत याद आता है। अपने चटक तारों के साथ
रात में जी-भरकर फैला हुआ
मेरे गाँव के बगीचे में
झरते हुए पीले-पीले पत्ते
कब देखूँगा?
उसकी डालियों, शाखाओं पर
आत्मा को तृप्त कर देने वाली
नई-नई कोंपलें कब देखूँगा?
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