10+ Best Poems on Father in Hindi | पिता पर कविताएँ

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Poems on Father in Hindi _ पिता पर कविताएँ

Last Updated on August 8, 2023

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Best hindi poem on father | पिता पर कविता

These Hindi Poems on Father are written by great Hindi Poets. We also published articles of Poems on Mother and Poems on Daughter.

  1. एहसानमन्द हूँ पिता | सविता सिंह | Hindi Poem on Father
  2. पिता की याद | कुमार विश्वास | पापा पर कविता
  3. टेलिफ़ोन पर पिता की आवाज़ | नीलेश रघुवंशी | Heart Touching Poems on Father in Hindi
  4. दुख पिता की तरह | अनूप अशेष | पिता पर छोटी कविता
  5. दो लड़कियों का पिता होने से | चन्द्रकान्त देवताले | Pita Par Kavita
  6. पापा | मनविंदर भिम्बर | Hindi Poems on Parents
  7. पिता | दिनेश कुमार शुक्ल | Mata Pita Par Kavita
  8. पिता | हरे प्रकाश उपाध्याय | Father’s Day Poem Hindi
  9. पिता की इच्छाएँ | आशीष त्रिपाठी
  10. पिता की याद में | पूनम तुषामड़
  11. पिता की चिट्ठी | सुदर्शन वशिष्ठ

1.एहसानमन्द हूँ पिता | सविता सिंह | Hindi Poem on Father

एहसानमन्द हूँ पिता
कि पढ़ाया-लिखाया मुझे इतना
बना दिया किसी लायक कि जी सकूँ निर्भय इस संसार में
झोंका नहीं जीवन की आग में जबरन
बांधा नहीं किसी की रस्सी से कि उसके पास ताकत और पैसा था
लड़ने के लिए जाने दिया मुझको
घनघोर बारिश और तूफ़ान में

एहसानमन्द हूँ कि इन्तज़ार नहीं किया
मेरे जीतने और लौटने का
मसरूफ़ रहे अपने दूसरे कामों में

2.पिता की याद | कुमार विश्वास | पापा पर कविता

फिर पुराने नीम के नीचे खडा हूँ

फिर पिता की याद आई है मुझे

नीम सी यादें ह्रदय में चुप समेटे

चारपाई डाल आँगन बीच लेटे

सोचते हैं हित सदा उनके घरों का

दूर है जो एक बेटी चार बेटे

फिर कोई रख हाथ काँधे पर

कहीं यह पूछता है-

“क्यूँ अकेला हूँ भरी इस भीड मे”

मै रो पडा हूँ

फिर पिता की याद आई है मुझे

फिर पुराने नीम के नीचे खडा हूँ

3.टेलिफ़ोन पर पिता की आवाज़ | नीलेश रघुवंशी | Heart Touching Poems on Father in Hindi

टेलीफ़ोन पर
थरथराती है पिता की आवाज़
दिये की लौ की तरह काँपती-सी।

दूर से आती हुई
छिपाए बेचैनी और दुख।

टेलीफ़ोन के तार से गुज़रती हुई
कोसती खीझती
इस आधुनिक उपकरण पर।

तारों की तरह टिमटिमाती
टूटती-जुड़ती-सी आवाज़।

कितना सुखद
पिता को सुनना टेलीफ़ोन पर
पहले-पहल कैसे पकड़ा होगा पिता ने टेलीफ़ोन।

कड़कती बिजली-सी पिता की आवाज़
कैसी सहमी-सहमी-सी टेलीफ़ोन पर।

बनते-बिगड़ते बुलबुलों की तरह
आवाज़ पिता की भर्राई हुई
पकड़े रहे होंगे
टेलीफ़ोन देर तक
अपने ही बच्चों से
दूर से बातें करते पिता।

4.दुख पिता की तरह | अनूप अशेष | पिता पर छोटी कविता

कुछ नहीं कहते
न रोते हैं
दुख
पिता की तरह
होते हैं
इस भरे तालाब से
बाँधे हुए
मन में
धुआँते से रहे ठहरे
जागते तन में
लिपट कर हम में
बहुत चुपचाप
सोते हैं।
सगे अपनी बाँह से
टूटे हुए
घर के
चिता तक जाते
उठा कर पाँव
कोहबर के
हम अजाने में जुड़ी
उम्मीद
बोते हैं।

5.दो लड़कियों का पिता होने से | चन्द्रकान्त देवताले | Pita Par Kavita

पपीते के पेड़ की तरह मेरी पत्नी
मैं पिता हूँ
दो चिड़ियाओं का जो चोंच में धान के कनके दबाए
पपीते की गोद में बैठी हैं
सिर्फ़ बेटियों का पिता होने से भर से ही
कितनी हया भर जाती है
शब्दों में
मेरे देश में होता तो है ऐसा
कि फिर धरती को बाँचती हैं
पिता की कवि-आंखें…….
बेटियों को गुड़ियों की तरह गोद में खिलाते हैं हाथ
बेटियों का भविष्य सोच बादलों से भर जाता है
कवि का हृदय
एक सुबह पहाड़-सी दिखती हैं बेटियाँ
कलेजा कवि का चट्टान-सा होकर भी थर्राता है
पत्तियों की तरह
और अचानक डर जाता है कवि चिड़ियाओं से
चाहते हुए उन्हें इतना
करते हुए बेहद प्यार।

6.पापा | मनविंदर भिम्बर | Hindi Poems on Parents

पापा !
मेरे प्यारे पापा !
मैं इंतज़ार करती रही
चाकलेट का
गुड़िया का

उस दिन पापा नहीं आए
पापा का शरीर आया
तिरंगे में लिपटा हुआ

माँ ने बताया
पापा शहीद हो गए हैं
आसमान में तारा बन गए हैं
पापा ! …..मेरे प्यारे पापा !!

7.पिता | दिनेश कुमार शुक्ल | Mata Pita Par Kavita

चार बताशे चार फूल दो लौंग बांधकर
लाल अंगौछे में
देबी जी की मठिया पर
संझा होते
सगुन साध कर
धर आती थीं
परस्थान अममा या दादी,
और समझ जाते थे हम सब
पिता जायेंगे कल कलकत्ता
रोजी-रोटी की तलाश में

हर दो-ढाई साल बाद
आती थी ऐसी शाम
हमारे घर आंगन में
कई महीने घर पर रह कर
कई साल के लिये पिता जब
फिर वापस जाते कलकत्ता

काली घिरती शाम की तरह
अंधकार में लिपटा-लिपटा
कलकत्ता मेरी आंखों में
घुस आता था
छुक-छुक करता
धुंआ छोड़ता
कड़वाहट भरता आंखों में —
मैं डरता था कलकत्ते से

बाबू जी की तैयारी में
कुछ चीजें हरदम रहती थीं
भारी काला सन्दूक और
ढोलक सा बिस्तरबन्द एक,
कलफ लगे धोती कुर्ते
गमछे लंगोट बनियाइन
लोटा गिलास थाली खोरवा
आटे के लड्डू और शहद
गुड़
थोड़ी बुकुनू थोड़ा अचार

इस सरंजाम के साथ
शाम जल्दी-जल्दी ढल जाती थी
सोता शायद ही था कोई,
होते ही भिनुसार
लगाकर तिलक विदा करती थीं दादी
और पिता दादी के दू कर पाँव
देवताओं को कर प्रणाम
देहरी को माथा नवा
निकल पडुते थे घर से,
देवी जी की मठिया से
ले कर परस्लथान
जल्दी-जल्दी चल देते थे
बस अड्डे को,
टोंका-टांकी से बचते हुए
तेज चलते,
उनके पीछे सामान
लाद कोई रख आता था बस में,
बस ले जाती थी कानपुर
और कानपुर से पकड़
कालका मेल या कि तूफान
पिता कलकत्ते को चल देते थे

घर में हम सब
गुमसुम गुमसुम
अम्मा बनें दादी
पड़ोस
सब कुछ चुप-चुप-चुप सा रहता था

थकी-थकी सी नीम
लगा करती थी मुझको
हवा भले बहती हो
पर वह
चुप रहती थी
हफ्तों महीनों

हमारे घर से थी
दो-तीन मील की दूरी पर
पटरी की लाइन —
जब भी आती आवाज
रेल की धड़-धड़-धड़
मुझको लगता यह गाड़ी है
तूफान मेल कालका मेल
जिस पर कुछ हक मेरा भी है
ये बाबू जी की गाड़ी है
जो कलकत्ते तक जाती है
फिर उनको छू कर आती है
फिर हमको छू कर जाती है
अपनी कू छिक-छिक धड़-धड़ से
छूती हमको गहरे मन में
यह मेरी अपनी गाड़ी है

धीरे-धीरे भर जाता था सूनापन
मेरा खेल कूद स्कूल साथियों के संग से,
आ जाता था चिट्ठी-पत्री के साथ
मनीआर्डर हर महीने

फिर धीरे-धीरे मेरी मां
कुम्हलाया करती थीं वर्षों
दादी भी चिन्तित-चिन्तित सी
बहनें भी घबराई रहतीं
हम रोज प्रार्थना करते थे

फिर कभी-कभी सपनों में
घुसता आ जाता था कलकत्ता
जिसमें बाबू जी होते थे
चुन्नटवाला कुरता पहने
वे मुझे देख मुस्काते थे
कहते थे जल्दी आऊंगा
जो चाहोगे ले आऊंगा
कलकत्ते में थी बहुत भीड़
कलकत्ते में था बहुत धुआं
यह सपनों का कलकत्ता था
कलकत्ते में सूनापन था —
मैं डरता था कलकत्ते से

मेस में रहते थे पिता
वहीं खाना खाते,
पूरी जिन्दगी गांव में
अम्मा बनी रहीं
इस तरह हमारी जड़
ड्योढ़ी में गड़ी रही

परिवार-स्नेह-ऊष्मा-विहीन
दिन रात गुजरते जाते थे
कहते सुनते गाते कवित्त,
गिरते पड़ते भिड़ते,
जीवन की कटुता पी-पी कर
वह भक्त सदाशिव नीलकण्ठ के
स्वयं गरल पी जाते थे,
इस तरह मीने और साल
कलकत्ते में कट जाते थे,
तब आते-आते आता था वह दिन
जिस दिन वे लड़कर अफसर से
उसकी ऐसी तैसी करके
लात मार कर सर्विस को इस्तीफा दे
चल देते थे वापस घर को

आते जब पिता लौट कर घर
घर में पड़ोस में जगर-मगर
कुछ आभा सी भर जाती थी
वह बूढ़ी नीम खुशी में भर
खिलती मुस्काती गाती थी
उनकी आवाज गूंजती थी
सारे पड़ोस में आस-पास
आ जाते थे मिलने वाले
क्रम चलता रहता कई मास

यद्यपि वे कृष्ण कलेवर हैं —
हर भौजाई के देवर हैं
बिन होनी के हुड़दंग मचा
उनके अपनी ही तेवर हैं

अब पिता बहुत बूढें शरीर से
मन से भी कुछ थके-थके
पर गांव छोड़ने को
बिल्कुल तैयार नहीं वे होते हैं
यह जड़ें गांव में उनकी
इतनी गहरी-गहरी पैठी हैं

पच्चासी वर्षों का किशोर
जो उनके भीतर रहता है
खोजा करता है वह अपने
बचपन की खोई हुई गेंद
गुल्ली, कुश्ती, किस्से, कवित्त
सूने पड़ते जाते पड़ोस की
गलियों में खण्डहरों में,
खाली होता जा रहा गांव
केवल वह
अलख जगाए हैं।

8.पिता | हरे प्रकाश उपाध्याय | Father’s Day Poem Hindi

पिता जब बहुत बड़े हो गये
और बूढ़े
तो चीज़ें उन्हें छोटी दिखने लगीं
बहुत-बहुत छोटी

आख़िरकार पिता को
लेना पड़ा चश्मा

चश्मे से चीज़ें
उन्हें बड़ी दिखाई देनी लगीं
पर चीज़ें
जितनी थीं और
जिस रूप में
ठीक वैसा
उतना देखना चाहते थे पिता

वे बुढ़ापे में
देखना चाहते थे
हमें अपने बेटे के रूप में
बच्चों को ‘बच्चे’ के रूप में
जबकि हम
उनके चश्मे से ‘बाप’ दिखने लगे थे
और बच्चे ‘सयाने’

9.पिता की इच्छाएँ | आशीष त्रिपाठी

पिता जीते हैं इच्छाओं में

पिता की इच्छाएँ
उन चिरैयों का झुंड
जो आता है आँगन में रोज़
पिता के बिखराए दाने चुगने

वे हो जाना चाहते हैं हमारे लिए
ठंडी में गर्म स्वेटर
और गर्मी में सर की अँगौछी

हमारी भूख में
बटुओं में पकते अन्न की तरह
गमकना चाहते हैं पिता
हमारी थकान में छुट्टी की घंटी की तरह बजना चाहते हैं वे

पिता घर को बना देना चाहते हैं
सुनार की भट्ठी
वे हमें खरा सोना देखना चाहते हैं

लगता है कभी-कभी
इच्छाएँ नहीं होंगी
तो क्या होगा पिता का

गंगा-जमुना की आख़िरी बूँद तक
पिता देना चाहते हैं चिरैयों को अन्न
पिता, बने रहना चाहते हैं पिता ।

10.पिता की याद में | पूनम तुषामड़

यूँ तो रोज़ ही छलक जाती है
चंद बूँदें इन आँखों से
जब भी आपकी याद आती है

परन्तु कई बार मन घुटता है
अंतर में आँखों से आँसू नहीं बहते
परन्तु मन में उमड़ आती हैं
कई यादों की धाराएँ एक साथ
बचपन से जवानी तक के
सफ़र की हर बात

तब ख़ुद को समझाने पर भी
नहीं होता है विश्वास
आज आप नहीं हैं हमारे बीच
अपने बच्चों के पास

पापा न जाने क्यूँ एक ही बात सताती है
जब भी आपकी याद आती है
क्यूँ चले गए आप अचानक
इतनी दूर
हम अभागी संतान न रह सके
अंतिम समय में भी आपके पास

आपके साथ ही जैसे चली गई है
हमारी हर ख़ुशी, हमारे चेहरों कीं रौनक
हमारा उत्साह, हमारा विश्वास

11.पिता की चिट्ठी | सुदर्शन वशिष्ठ

कभी इस ओर आओ तो
घर भी आना।

नज़दीक आ रहा
दादा का श्राद्ध
बहन की नहीं निभ रही ससुराल में
निपटाना है झगड़ा जमीन का
कभी इस ओर आओ तो
घर भी आना।

गाय ने दिया है बछड़ा
आम में आया है बूर
पहली बार फूला है
तुम्हारा रोपा अमलतास।

पीपल हो गया खोखला
पत्तियाँ हरी हैं

दादी की कम हुई यादाश्त
तुम्हारी याद बाकी है।

माँ देखती है रास्ते की ओर
काग उड़ाती है रोज़
कभी इस ओर आओ तो
घर भी आना।

दीवार में बढ़ गई है दरार
माँ का नहीं टूट रहा बुखार
दादा ने पकड़ ली है खाट
सभी जोह रहे तुम्हारी बाट
खत को समझना तार।

शेष सब सकुशल है
कभी इस ओर आओ तो
घर भी आना।

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