10 Diwali Poems In Hindi| दीवाली पर हिन्दी कविताएँ

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Last Updated on August 8, 2023

यहाँ पर हम आपके लिए लेकर आये है दीवाली पर हिन्दी कविताएँ जिससे आप अपने बचो को पढ़ा सकते है यहाँ दीवाली के शुभ अवसर Happy Diwalli Hindi Wishes.

10+ Diwali Poems In Hindi | दीवाली पर हिन्दी कविताएँ

अंधियार ढल कर ही रहेगा | गोपालदास “नीरज” | Poem on Diwali in Hindi For Class 1, 2, 3, 6

अंधियार ढल कर ही रहेगा

आंधियां चाहें उठाओ,
बिजलियां चाहें गिराओ,
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाये,
वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर गाहक लगाये,
वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है,
जो नया सूरज उगाये जब तड़पकर तिलमिलाये,
उग रही लौ को न टोको,
ज्योति के रथ को न रोको,
यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार है वह,
धूप में कुछ भी न, तम में किन्तु पहरेदार है वह,
दूर से तो एक ही बस फूंक का वह है तमाशा,
देह से छू जाय तो फिर विप्लवी अंगार है वह,
व्यर्थ है दीवार गढना,
लाख लाख किवाड़ जड़ना,
मृतिका के हांथ में अमरित मचलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

है जवानी तो हवा हर एक घूंघट खोलती है,
टोक दो तो आंधियों की बोलियों में बोलती है,
वह नहीं कानून जाने, वह नहीं प्रतिबन्ध माने,
वह पहाड़ों पर बदलियों सी उछलती डोलती है,
जाल चांदी का लपेटो,
खून का सौदा समेटो,
आदमी हर कैद से बाहर निकलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

वक्त को जिसने नहीं समझा उसे मिटना पड़ा है,
बच गया तलवार से तो फूल से कटना पड़ा है,
क्यों न कितनी ही बड़ी हो, क्यों न कितनी ही कठिन हो,
हर नदी की राह से चट्टान को हटना पड़ा है,
उस सुबह से सन्धि कर लो,
हर किरन की मांग भर लो,
है जगा इन्सान तो मौसम बदलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

दीपों का त्यौहार | दीनदयाल शर्मा | Deepavali Poem in Hindi

दीपों का त्यौहार दिवाली
आओ दीप जलाएँ,
भीतर के अंधियारे को हम
मिलकर दूर भगाएँ।

छत्त पर लटक रहे हों जाले
इनको दूर हटाएँ,
रंग-रोगन से सारे घर को
सुन्दर सा चमकाएँ।

अनार, पटाखे, बम-फुलझडी,
चकरी खूब चलाएँ,
हलवा-पूड़ी, भजिया-मठी
कूद-कूद कर खाएँ।

सुन्दर-सुन्दर पहन के कपड़े
घर-घर मिलने जाएँ,
इक दूजे में खुशियाँ बाँटे,
अपने सब बन जाएँ।

दिशा-दिशा में दीपों की

आलोक-ध्वजा फहराओ
देह-प्रहित शुभ शुक्र! आज तुम
घर-घर में उग आओ
व्योम-भाल पर अंकित कर दो
ज्योति-हर्षिणी क्रीड़ा
सप्तवर्ण सौंदर्य!
प्रभामंडल में प्राण जगाओ!
जागो! जागो! किरणों के
ईशान! क्षितिज-बाहों में
जागो द्योनायक! पर्जन्यों की
अरश्मि राहों में
जागो स्वप्नगर्भ तमसा के
उर्ध्व शिखर अवदाती
श्री के संवत्सर जागो
द्युति की चक्रित चाहों में।
तिमिर-पंथ जीवन की
जल-जल उठे वर्तिका काली
पके समूची सृष्टि विभा से,
अमा घनी भौंराली
सुषमा के अध्वर्य,
उदित शोभा के मंत्रजयी ओ!
भर दो ऊर्जा से प्रदीप्ति की
भुवन-मंडिनी थाली।
गोरज-चिह्नित अंतरिक्ष के
ज्योति-कलश उमड़ाओ
स्वर्णपर्ण नभ से फिर मिट्टी
के दीपों में आओ
आभा के अधिदेव! मिटा दो
धरा-गगन की रेखा
रश्मित निखिल यज्ञफल को फिर
जन-जन सुलभ बनाओ
दिशा-दिशा में इंद्रक्रांति के
कुमुद-पात्र बिखराओ
सप्तसिंधु-पोषित धरणी की
अंजलि भरते जाओ
सुरजन्मी आलोक! चतुर्दिक
प्रतिकल्पी तम छाया
श्री के संवत्सर! ऋतुओं की
जड़ता पर छा जाओ!

फिर खुशियों के दीप जलाओ | Diwali Par Kavita

ये प्रकाश का अभिनन्दन है
अंधकार को दूर भगाओ
पहले स्नेह लुटाओ सब पर

शुद्ध करो निज मन मंदिर को
क्रोध-अनल लालच-विष छोडो
परहित पर हो अर्पित जीवन
स्वार्थ मोह बंधन सब तोड़ो
जो आँखों पर पड़ा हुआ है
पहले वो अज्ञान उठाओ
पहले स्नेह लुटाओ सब पर
फिर खुशिओं के दीप जलाओ

जहाँ रौशनी दे न दिखाई
उस पर भी सोचो पल दो पल
वहाँ किसी की आँखों में भी
है आशाओं का शीतल जल
जो जीवन पथ में भटके हैं
उनकी नई राह दिखलाओ
पहले स्नेह लुटाओ सब पर

नवल ज्योति से नव प्रकाश हो
नई सोच हो नई कल्पना
चहुँ दिशी यश, वैभव, सुख बरसे
पूरा हो जाए हर सपना
जिसमे सभी संग दीखते हों
कुछ ऐसे तस्वीर बनाओ
पहले स्नेह लुटाओ सब पर
फिर खुशियों के दीप जलाओ

– अरुण मित्तल ‘अद्भुत’

Emotional Poem on Diwali in Hindi | दीपावली | शिवप्रसाद जोशी

मन से मन का दीप जलाओ
जगमग-जगमग दि‍वाली मनाओ

धनियों के घर बंदनवार सजती
निर्धन के घर लक्ष्मी न ठहरती
मन से मन का दीप जलाओ
घृणा-द्वेष को मिल दूर भगाओ
घर-घर जगमग दीप जलते
नफरत के तम फिर भी न छंटते
जगमग-जगमग मनती दिवाली
गरीबों की दिखती है चौखट खाली
खूब धूम धड़काके पटाखे चटखते
आकाश में जा ऊपर राकेट फूटते
काहे की कैसी मन पाए दिवाली
अंटी हो जिसकी पैसे से खाली
गरीब की कैसे मनेगी दीवाली
खाने को जब हो कवल रोटी खाली
दीप अपनी बोली खुद लगाते
गरीबी से हमेशा दूर भाग जाते
अमीरों की दहलीज सजाते
फिर कैसे मना पाए गरीब दि‍वाली
दीपक भी जा बैठे हैं बहुमंजिलों पर

पटाखे पहचानने लगे हैं धनवानों को
वही फूटा करती आतिशबाजियां
यदि एक निर्धन का भर दे जो पेट
सबसे अच्छी मनती उसकी दि‍वाली
हजारों दीप जगमगा जाएंगे जग में
भूखे नंगों को यदि रोटी वस्त्र मिलेंगे
दुआओं से सारे जहां को महकाएंगे
आत्मा को नव आलोक से भर देगें
फुटपाथों पर पड़े रोज ही सड़ते हैं
सजाते जिंदगी की वलियां रोज है
कौन-सा दीप हो जाए गुम न पता
दिन होने पर सोच विवश हो जाते|
– डॉ मधु त्रिवेदी|

दीपक मेरे मैं दीपों की | रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’

दीपक मेरे मैं दीपों की
सिंदूरी किरणों में डूबे
दीपक मेरे
मैं दीपों की!

इनमें मेरा स्नेह भरा है
इनमें मन का गीत ढरा है
इन्हें न बुझने देना प्रियतम
दीपक मेरे मैं दीपों की!

इनमें मेरी आशा चमकी
प्राणों की अभिलाषा चमकी
हैं ये मन के मोती मेरे
मैं हूँ इन गीले सीपों की

इनको कितना प्यार करूँ मैं
कैसे इनका रूप धरूँ मैं
रतनरी छाँहों में डूबे
दीपक मेरे मैं दीपों की

मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है / हरिवंशराय बच्चन |

मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है|

आभारी हूँ तुमने आकर
मेरा ताप-भरा तन देखा,
आभारी हूँ तुमने आकर
मेरा आह-घिरा मन देखा,
करुणामय वह शब्द तुम्हारा–
’मुसकाओ’ था कितना प्यारा।
मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है|

है मुझको मालूम पुतलियों
में दीपों की लौ लहराती,
है मुझको मालूम कि अधरों
के ऊपर जगती है बाती,
उजियाला कर देने वाली
मुसकानों से भी परिचित हूँ,
पर मैंने तम की बाहों में अपना साथी पहचाना है।
मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है|

यह दीपक है, यह परवाना | हरिवंशराय बच्चन | short poem on diwali in english

यह दीपक है, यह परवाना / हरिवंशराय बच्चन

यह दीपक है, यह परवाना।

ज्वाल जगी है, उसके आगे
जलनेवालों का जमघट है,
भूल करे मत कोई कहकर,
यह परवानों का मरघट है;
एक नहीं है दोनों मरकर जलना औ’ जलकर मर जाना।
यह दीपक है, यह परवाना।

इनकी तुलना करने को कुछ
देख न, हे मन, अपने अंदर,
वहाँ चिता चिंता की जलती,
जलता है तू शव-सा बनकर;
यहाँ प्रणय की होली में है खेल जलाना या जल जाना।
यह दीपक है, यह परवाना।

लेनी पड़े अगर ज्वाला ही
तुझको जीवन में, मेरे मन,
तो न मृतक ज्वाला में जल तू
कर सजीव में प्राण समर्पण;
चिता-दग्ध होने से बेहतर है होली में प्राण गँवाना।
यह दीपक है, यह परवाना।

जगमग जगमग | सोहनलाल द्विवेदी | Diwali poem in Hindi for class nursery

हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
कैसी उजियाली है पग-पग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!

छज्जों में, छत में, आले में,
तुलसी के नन्हें थाले में,
यह कौन रहा है दृग को ठग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!

पर्वत में, नदियों, नहरों में,
प्यारी प्यारी सी लहरों में,
तैरते दीप कैसे भग-भग!
जगमग जगमग जगमग जगमग!

राजा के घर, कंगले के घर,
हैं वही दीप सुंदर सुंदर!
दीवाली की श्री है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है? | हरिवंशराय बच्चन |poem on diwali in hindi by harivansh rai bachchan

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था।

स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।

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